कहानी संग्रह >> इन्द्रधनुष का आठवाँ रंग इन्द्रधनुष का आठवाँ रंगडॉ. सूरज राव
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अनकही वेदनाओं और अनसुनी संवेदनाओं की आवाज़।
आमुख
आमतौर पर भावना, यथार्थ व अनुभव के संक्रमण से कल्पना की भावभूमि पर संवेदना के सहारे से कहानियों के कथ्य निर्मित होते हैं। आँख से जो देखा, मन ने जो महसूस किया, वही भाव कल्पना के कलेवर से उजागर करने की मंशा ने कहानी को जन्म दिया। वेदना, संवेदना, यथार्थबोध, कल्पना व कल्पनातीत अंतस की करुण-चीत्कार, मन के मूक रुदन को शब्दों का जामा पहना कर उसे अर्थगम्यता का यह प्रयास ‘इन्द्रधनुष का आठवां रंग’ के रूप में सुधी पाठकों के सम्मुख है।
कभी-कभी किसी का संघर्ष, साहस या सर्मपण जीवन को हौसला दे जाते हैं, तो कभी-कभी किसी को जालसाजी या मक्कारी मन में एक सवाल बनकर मुँह चिढ़ाने लगती है। ये कहानियाँ उसका हो जवाब है जिसने अनुभूतियों से अटे-पड़े अनन्त आकाश से मुझे एकदम अलग-थलग पटक दिया। कहानियाँ मेरी नहीं हैं, ये तो कहानियों के पात्रों के अंतर्द्वंद्व की वह ऊहापोह है वो खुद से खुद को नोचती है और लहूलुहान होती रहती है। ये कहानियाँ उन्हीं रक्तरंजित बेजुबान चेहरों की जुबान हैं, तो कुछ अधूरे खानों में उलझे मनों की सनद भी हैं।
कहानियों के कुछ पात्र तो ऐसे भी हैं, जो जीवन के निरंतर प्रवाह में मिट्टी के पुतलों की मानिद हवा में बिखरते-टूटते और पीछे छूटते रहे, पर उनकी मौजूदगी सदैव मेरे इर्द-गिर्द रही। मेरी रूह ने जो महसूस किया वहीं पात्र कहानियों के किरदार के बहाने अभिव्यक्त हुए हैं।
ज्यादातर कहानियों के स्त्रीपात्र, संवेदना के सहारे, मानवीय संबंधों की सच्चाई को परत-दर-परत खोलते हैं। सामाजिक रिवायतों के उलझे ताने-बाने के रीति-रिवाज, सुख की अनंत लालसा, मिलन-विछोह की बिसात पर खुद को ही एक अजीब कैदखाने में कैद कर लेते हैं। रूप, रंग, जाति, धर्म, अधिकार कर्तव्यबोध से उलझी स्त्री इस संघर्ष को हो जीवन की सार्थकता मान बैठी है।
मानव के मानस में उभरते दुर्गुणों को अतिरंजकता के साथ उकेरना मेरा उद्देश्य नहीं है और न ही पाठक को चौंकाने की कोई सोची-समझी चाल है। जब मानवीय संबंधों में प्रेम, अनुराग के बहाने आचारगत विकृतियाँ देखी, जब शूद्र स्वार्थों में डूबे रिश्तों का लोभ-लालच के पंक से प्रताड़ित व्यवहार देखा तो मैं स्वयं ही चौंक गया। यह कथ्य बेहोशी के आलम की वह निष्पत्ति है, जब मैं स्वयं उस भोगे हुए यथार्थ के मानिद सूक्ष्म किंतु तीक्ष्ण वेदना से रक्तरंजित था।
ज्यादा से ज्यादा वे कहानियाँ एक अबोध मानस से टकराए संयोग-कुसंयोग की निष्पत्ति ही हैं, जिसने अनुभवों के अंतर्जाल से महसूस किए गए मर्म के फलक को विस्तृत कर दिया। मर्म का यही दायरा है जो वेदना में निमंज्जित होकर तमाम बंदिशों को दर किनार करते हुए अभिव्यक्त हुआ।
कल्पना की कुक्षि में विकसित जीवन के कुसंयोगों के कारण उत्पन्न संवेदनामय शब्द संयोजना को मैं तो कहानी नहीं मानता। आप मानो, तो आपकी मर्जी। शिल्प और सौंदर्यबोध का मुझ अबोध को कुछ भी भान नहीं, जो देखा-सुना, जो भोगा, उसी वेदना का ताना-बाना बुना। कथ्य, शिल्प व किरदार में साहित्यिक शुचिता के लिए लाजमी बदलाव किए, पर कहानियों के सभी किरदार यथार्थ की पथरीली भावभूमि पर ही नमूदार हुए।
– डॉ. सूरज राव
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